रेलवे हो या फिर बरेका के स्क्रैप का ठेका। सभी में मुख्तार का नाम ही काफी होता था। वर्ष 1990 से 2010 तक मुख्तार ने अपनी एक अलग ही दहशत की रेल दौड़ाई। खौफ इतना था कि पूर्वोत्तर और उत्तर रेलवे में टेंडर मुख्तार के कहने पर ही निकलते और रद्द होते थे।
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